घर से निकल कर
मिलों दूर चल कर
बहुत कुछ त्याग
करना पड़ता है
यूँ ही नहीं कोई बनता नीरज
सीने में आग भरकर
जीत की धुन में सन कर
पसीने के साथ
पिघलना पड़ता है
यूँ ही नहीं कोई बनता नीरज
एक राह को पकड़ कर
मंज़िल उसी को चुन कर
गिरते पड़ते किसी तरह
चलना पड़ता है
यूँ ही नहीं कोई बनता नीरज
गर्मियों में तप कर
सर्दियों में डट कर
बरसात में बूँदों संग
बरसना पड़ता है
यूँ ही नहीं कोई बनता नीरज
अतीत को भुला कर
वर्तमान को सजा कर
सुनहरे भविष्य के लिए
तपना पड़ता है
यूँ ही नहीं कोई बनता नीरज
आँखों में ख्वाब भरकर
दिल में उम्मीद रख कर
सपने को हकीकत में
बदलना पड़ता है
यूँ ही नहीं कोई बनता नीरज
~Shailendra Kumar Mani